एसजी न्यूज। ब्यास मुनि द्विवेदी। जिस आरटीआई (सूचना का अधिकार अधिनियम-2005) कानून को कांग्रेस की गठबंधन सरकार में लागू किया गया, इसी कानून की वजह से सरकार के घोटालों का पर्दाफास हुआ और भाजपा की सरकार बनने का रास्ता निकला। घोटाले उजागर होते रहे इसी बीच अन्ना का आंदोलन जनता की नाराजगी में घी डालने का काम किया, भाजपा ने भी सरकार को आड़े हाथों लिया और चुनाव में भाजपा को बहुमत मिल गयी।
अब यही कानून भाजपा के लिए डर पैदा कर रहा है। आखिर सरकार को सूचना के अधिकार अधिनियम में संसोधन इतना गोपनीय तरीके से क्यों करना पड़ रहा है। जब खुद प्रधानमंत्री इस बात को जोर-जोर से कह रहे हैं कि डिजिटल इंडिया होना चाहिए, ट्रांसपेरेंसी बढ़ेगी तो भ्रष्टाचार कम होगा। फिर सरकार खुद जनता को अंधेरे में रखकर कानून संसोधन क्यों करने जा रही है।
संसोधन विधेयक के प्रावधानों को न तो सार्वजनिक किया गया है और न ही आम जनता की राय ली गई है। लेकिन अब इस बात की पूरी तरह से पुष्टि हो गई है कि मोदी सरकार सूचना का आधिकार कानून में संशोधन करने जा रही है।
12 जुलाई को मानसून सत्र के लिए लोकसभा के कार्यदिवसों की सूची जारी की गई है जिसमें यह लिखा है कि सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 में संशोधन करने के लिए बिल सदन में पेश किया जाएगा।
हालांकि कई सारे नागरिक संगठन और आरटीआई कानून लाने में मुख्य भूमिका निभाने वाले लोग इस बिल का कड़ा विरोध कर रहे हैं। विरोध करने की मुख्य वजह ये है कि केंद्र सरकार ने इस बात को सार्वजनिक नहीं किया है कि वो आखिर आरटीआई कानून में क्या संशोधन करने जा रही है? दरअसल संशोधन विधेयक के प्रावधानों को न तो सार्वजनिक किया गया है और न ही इस पर आम जनता की राय ली गई है।
किसी भी विधेयक में नियम के मुताबिक अगर कोई संशोधन या विधेयक सरकार लाती है तो उसे संबंधित मंत्रालय या डिपार्टमेंट की वेबसाइट पर सार्वजनिक किया जाता है और उस पर आम जनता की राय मांगी जाती है। कुछ मामलों में सरकार अखबारों में भी विधेयक से संबंधित जानकारी प्रकाशित करवाती है और उस पर लोगों सुझाव भेजने के लिए कहा जाता है इस पूरी प्रक्रिया को प्री-लेजिस्लेटिव कंसल्टेशन पॉलिसी यानी कि पूर्व-विधायी परामर्श नीति कहते हैं। लेकिन सरकार ने इसे पूरी तरह दरकिनार कर दिया।
सबसे बड़ा सवाल ये है कि आखिर सरकार को इस कानून से डर क्यों पैदा हो गया?
संविधान के जानकारों का कहना है कि जनता को ये जानने का पूरा अधिकार है, खासकर आरटीआई एक्ट के बारे में, कि आखिर सरकार क्या संशोधन लाने जा रही है? कही सरकार इस संशोधन के ज़रिये सूचना आयोग के कद को छोटा करने की कोशिश कर रही है?
पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त शैलेश गांधी ने एक न्यूज साइट से कहा कहा, ‘आरटीआई कानून की गलत तरीके से व्याख्या करने के कारण इसे सही तरह से लागू नहीं किया गया। सूचना आयुक्तों का भी अनुचित चयन किया गया। ज्यादातर सूचना आयुक्तों का पारदर्शिता की लड़ाई से कोई लेना-देना नहीं है। अगर आरटीआई कानून कमज़ोर किया जाता है तो ये देश की जनता के लिए बहुत बड़ी हानि होगी।
आरटीआई कानून के जानकार कार्यकर्ता नितिन सिंघवी का कहना है कि सूचना का अधिकार अधिनियम-2005 की धारा 30 के अनुसार सरकार कानून लागू होने के दो वर्ष के भीतर राजकीय गजट में प्रकाशन कर परिवर्तन या संसोधन कर सकती थी यह परिवर्तन का अधिकार सरकार ने इसलिए रखा था कि यदि इसे लागू करने को लेकर कोई अड़चन पैदा हो तो उसे दूर किया जा सके। लेकिन इसमें ऐसा करने की जरूरत नही पड़ी । यदि इसमें कोई संसोधन संसद में लाकर किया जाता है तो इस कानून के मूल भावना से खिलवाड़ होगा। यह एक मात्र ऐसा कानून है जो भारत की 138 करोड़ जनता को सीधे हक़ देती है।
अब सरकार की मंशा संसद के पटल में संसोधन बिल पेश होने के बाद ही पता चलेगा।
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